Tuesday, December 7, 2010
रोकराज की देन - नेता .........
नस्ल भी परखी थी हमने
दाम भी ना दिए थे कम
हर बार की तरह इस बार भी
देखो उल्लू बन गए हम
हर चुना हुआ नेता
बिना लगाम का घोड़ा है
लोकराज में जो मिल जाये थोड़ा है....
गड्डो में सड़के बस मिलती
खातो में बढती शिक्षा दर
दोनों हाथो से लूट के सबको
मनती दिवाली इनके घर
रास्ता भी है ये और ये ही रास्ते का रोड़ा है
लोकराज में जो मिल जाये थोड़ा है....
आँगन में इनके पलती रिश्वत
चौके में पकता भ्रष्टाचार
खुद में इतने व्यस्त है ये
जनता का कैसे करे विचार
बड़ी मेहनत से इन ने स्विस बैंक में अरबो जोड़ा है
लोकराज में जो मिल जाये थोड़ा है...
कथनी इनकी इतनी है की
ग्रन्थ लिखे जा सकते है
करनी के नाम पे घोटालो का
ओस्कर ये जीत सकते है
हर चेहरे के पीछे कोई छुपा हुआ मधु कोड़ा है
लोकराज में जो मिल जाये थोड़ा है ..
सभी नेताओ को मेरा शत-शत प्रणाम ....
Sunday, November 14, 2010
बचपन ......
लगता है आसमान और भी नीला
जब होता है बचपन मेरे साथ
जब उस बड़े से कैनवास पर बनाती हु चाँद तारे
लहरों सी उमड़ जाती है मुस्कान
जब तारे बरसने लगते है बारिश में
और रात यु गुनगुनाती है की
पैरो में घुंगरू बज उठते है
जब तैरती हु मैं सागर में जलपरी की तरह
तो सूरज की किरने सोने सी बिखरने लगती है
हाथो में थमा देती है जादू की छड़ी
जब निंदिया मुझे बादल पे बिठा देती है
अक्सर पुराने अटाले में जादुई चिराग मैं खोज लेती हु
और आबरा का डाबरा कह के कुछ भी गायब कब देती हु
to be continued .....
Sunday, November 7, 2010
दिल . . . .
दिल होना बोहोत आसान है ना
और दिमाग होना भी
मुश्किल तो मुझे है
जीना मुझे पड़ता है तुम दोनों के साथ
सब कहते है दिल कुछ होता ही नही है
"इट्स जस्ट अ पम्पिंग ओरगन"
पर मेरा दिल ये नही मान पाता
कि वो कही है ही नही ......
मैं महसूस करती हु उसे
धड़कने कि चाल को मेरी चाल के साथ
उसकी घबराहट मेरे डर जाने पे
उसकी छटपटाहट मेरे रिजल्ट आने पे
कैसे झुटला दू मैं उसे..??
हां हां बायो मैंने भी पड़ा है
मुझे भी बकवास लगी थी मूवी
"दिल ने जिसे अपना कहा"
पर क्या करू ??
दिल है कि मानता नही.... !!!!
Wednesday, October 27, 2010
हसरत ...........
कारखानों में घिसते बचपन की मैं पेंसिल बन जाऊ
चाहत है कांपते हाथो की मैं लाठी बन जाऊ
फ़रिश्ते तो जमी पर रोज़ आया नही करते
कुछ ऐसा करू की गरीब की बरकत बन जाऊ
खुशिया अगर आये तो बाढ़ बन के मैं लुटा दू
गम आये अगर कभी तो मैं सागर बन जाऊ
महलो और झोपड़ो की जो दुनिया है सटी हुई
जोड़ दे जो दोनों को मै वो पगडण्डी बन जाऊ
मजदूर की मेहनत से दिन रात मैं भरती रहू
कोई भूखा न सोये मैं ऐसी थाली बन जाऊ
जब भी टपक के आँखों से मैं कविता बनू
चाहती हु तुम तक पहुच के फिर आंसू बन जाऊ
Wednesday, October 20, 2010
डर लगता है . . . . . . .
जब उठती है नही तमन्नाये
और दिल चाहता है उड़ जाने को
ये सोच कर की कही तोड़ ना दू समाज के इस पिंजरे को
मुझे अपने आप से डर लगता है
जब लक्ष्य ढूढने को उठते है कदम
और देखती हु बंदिशों में थमी जिंदगी को
ये सोच कर की कही छेद न दू द्वंद खुद में
मुझे अपने आप से डर लगता है
जब देखती हु अपने आप को
अपना अस्तित्व खोजते हुए
ये सोच कर की कही झुठला न दू खुद को
मुझे अपने आप से डर लगता है
जब याद आते है अनकहे अधूरे सपने
और उन्हें पूरा करने में असक्षम मैं
ये सोच कर की कही दफ़न न कर दू उन्हें अपने अन्दर
मुझे अपने आप से डर लगता है
Friday, October 1, 2010
कब तक . . . . .
कटघरे में खड़ा पाया है कमजोर को मैंने
अमीरों पे यहाँ कभी कोई इल्जाम नही आया
जो बिक गया था रात ही सिक्को की छन छन के लिए
सुबह इंसाफ ने बुलाया तो वो आवाम नही आया
सुकून मिलता है मुझे जब गरीब सोता है भर पेट
सियासत की बदौलत कबसे आराम नही आया
रावण से कम कोई क्या होगा आज का नेता
बस उन्हें मारने अब तक कोई राम नही आया
सबने चलाया देश को अपने अपने हिसाब से
किताबो में लिखा संविधान किसी काम नही आया
Thursday, September 23, 2010
बिखरे मोती . . . . . .
क्या रात अब कोई बाकि है होने के लिए
अब बचा ही क्या है जिंदगी में खोने के लिए
सुख चुके है फूल कबसे खुशियों के मेरे
उन्होंने अब सिंची है जमी दर्द बोने के लिए
मेरे हाथ में आकर हीरे भी पत्थर हो जातेहै
मैं क्या भागूंगी चांदी कभी सोने के लिए
गम को मुस्कराहट में कुछ इस तरह ढाला है
सब दुआ मांगते है अक्सर मेरे रोने के लिए
कुछ इस तरह बिखर चुकी हु मैं की क्या कंहू
मिलता नही कोई मोती पिरोने के लिए
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