Thursday, December 29, 2011

जिन्दगी . . . . .

जिन्दगी को समझने में निकल रही है जिन्दगी

एक खाली किताब पढने में निकल रही है जिन्दगी



नक़ल हम भी बंदरो से कुछ कम नही करते

दुसरो के चोलो में निकल रही है जिन्दगी



जिन कहानियो में मेरा ज़िक्र तक नही है

उलझ कर उनमे निकल रही है जिंदगी



सुबह को शाम , शाम को सुबह का इंतज़ार करते है

ना जाने किस चाह में निकल रही है जिंदगी



जब सवाल नही उठा था तब खुश थे हम

पर अब एक सवाल बनके निकल रही है जिंदगी