Wednesday, October 27, 2010

हसरत ...........



कारखानों में घिसते बचपन की मैं पेंसिल बन जाऊ
चाहत है कांपते हाथो की मैं लाठी बन जाऊ

फ़रिश्ते तो जमी पर रोज़ आया नही करते
कुछ ऐसा करू की गरीब की बरकत बन जाऊ

खुशिया अगर आये तो बाढ़ बन के मैं लुटा दू
गम आये अगर कभी तो मैं सागर बन जाऊ

महलो और झोपड़ो की जो दुनिया है सटी हुई
जोड़ दे जो दोनों को मै वो पगडण्डी बन जाऊ

मजदूर की मेहनत से दिन रात मैं भरती रहू
कोई भूखा न सोये मैं ऐसी थाली बन जाऊ

जब भी टपक के आँखों से मैं कविता बनू
चाहती हु तुम तक पहुच के फिर आंसू बन जाऊ

Wednesday, October 20, 2010

डर लगता है . . . . . . .


जब उठती है नही तमन्नाये
और दिल चाहता है उड़ जाने को
ये सोच कर की कही तोड़ ना दू समाज के इस पिंजरे को
मुझे अपने आप से डर लगता है

जब लक्ष्य ढूढने को उठते है कदम
और देखती हु बंदिशों में थमी जिंदगी को
ये सोच कर की कही छेद न दू द्वंद खुद में
मुझे अपने आप से डर लगता है

जब देखती हु अपने आप को
अपना अस्तित्व खोजते हुए
ये सोच कर की कही झुठला न दू खुद को
मुझे अपने आप से डर लगता है

जब याद आते है अनकहे अधूरे सपने
और उन्हें पूरा करने में असक्षम मैं
ये सोच कर की कही दफ़न न कर दू उन्हें अपने अन्दर
मुझे अपने आप से डर लगता है

Friday, October 1, 2010

कब तक . . . . .


कटघरे में खड़ा पाया है कमजोर को मैंने
अमीरों पे यहाँ कभी कोई इल्जाम नही आया

जो बिक गया था रात ही सिक्को की छन छन के लिए
सुबह इंसाफ ने बुलाया तो वो आवाम नही आया

सुकून मिलता है मुझे जब गरीब सोता है भर पेट
सियासत की बदौलत कबसे आराम नही आया

रावण से कम कोई क्या होगा आज का नेता
बस उन्हें मारने अब तक कोई राम नही आया

सबने चलाया देश को अपने अपने हिसाब से
किताबो में लिखा संविधान किसी काम नही आया