Saturday, August 28, 2010

ऐ रात ....


ऐ रात क्या तू सचमुच इतनी खामोश है की ,
मैं सुन पाऊ सिर्फ झींगुरो की आवाज़
या पत्तो से टकराती हुई हवा की चीत्कारे

ऐ रात क्या तू सचमुच छुपा सकती है
नदी के साथ बहती हुई अश्रु धरा को
या अँधेरे की भीड़ में बिकते हुए जस्बातो कों

ऐ रात क्या तू सचमुच बंद कर पायेगी
अधरे सपनो की तरफ ताकती अनगिनत आँखों कों
या नशे ने चूर सडको पे दौड़ती हक्ल्चल कों

ऐ रात क्या तू सच में रोक पाएगी
मेरे धरा प्रवाह से बड़ते हुए इन प्रश्नों कों
या चुपचाप करेगी इंतजार अपने बीत जाने का..

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